फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए ..

अभी–अभी तो निकले थे 
फिर कोई और द्वंद्व न हो जाए 
निकले हैै दो काफिर रण में ..
फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए !


इस खेल की धुली ,मटमैली है 
रक्त की प्यासी , काजल जैसे गहरी है !
जिंदगी थी स्वच्छंद ,कुछ वक्त पहले 
अब जैसे अंदर दम–सिमेटे ठहरी है !
मिट्टी के इस मानव की वो निश्छल उमंगे,
मिट्टी से ढेरो में न ,तब्दील हो जाए !
निकले है दो क्षिति लोभी रण में ...
फिर से कोई जीवन ,अनंत में न खो जाए !
निकले है दो काफिर रण में ....
फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए !!


अब वक्त कुछ ही है,संभले भी तो 
कोई सुथरी धरती, न रक्त से मैली हो जाए 
निकले है  दो  काफिर रण में ...
फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए !!


एक धड़ा जो , सम्पूर्ण विश्व को 
एकता और शांति पाठ पढ़ाता है !
आज खुद ही बनकर बागी , 
उन सब पर कालिख रंग रंगाता है !
फिर कोई खुशबू शायद ,
इस जीवन बाग की,कही  व्यर्थ न हो जाए 
फिर कोई फूल महकने से पहले ,
अपनी खुशबू को खो जाए 
निकले है दो काफिर रण में ....
फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए !!

ये इंद्रधनुष है जीवन का,
पल भर में बनता और बिगड़ता है 
कोई भी रंग  इसका , थोड़ा भी खिन्न न हो जाए 
जो रिश्ता है मानवता का, कहीं भिन्न न हो जाए 
निकले अब काफिर रण में ,
फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए !!


कुछ पाने की उस उम्मीदी में 
कोई बेजान मौत न हो जाए 
इस हठ के कारण कही कोई 
भीषण कल्पांत न हो जाए !
अब जीवन फिर से रुका है 
ये जर्जर था पहले से 
गुजरे नावाकिफ संकट से ...
अब प्रयत्न यही ,और मसला भी 
फिर वक्त कोई ,त्रासदी न दिखलाए 
निकले है अब पाषाणी रण में 
फिर से कोई महायुद्ध न हो जाए !!










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