कही नही है पावन जीवन....!!

कही नही है पावन जीवन घर घर सीता रोती है 

बनती बिगड़ती पहचान को लेकर ,चलती मदमस्त 
कभी अपमानित सी ,तो कभी जर्जर अधिकारों को ढोती है 
कभी अस्तित्व खोती है तो ,कभी अपने ही जन्म पे रोती है 

कही नही है पावन जीवन घर घर सीता रोती है 
कही नही है पावन जीवन घर घर सीता रोती है 


आधुनिक से इस अनंत में ,
वो सुंदर सितारे सी नजर आती है 
कभी होती गायत्री तो, कभी गंगा,
तो कभी सूर्य से तेज प्रखर सी दिख जाती है 
ढलती सहस्र आकृति में अक्सर फिर भी 
अंत में अनंत में क्षीण सी रह जाती है 
स्वयं भास्कर सा रौद्र हृदय में ,
पर फिर भी चंद्र सी विनम्र शीतल होती है 
कही नही है पावन जीवन घर घर सीता रोती है 

प्रकृति से भी प्राकृत है अस्मिता उसकी 
वो इस जीवन का मार्ग बतलाती है 
निस्वार्थ प्रयत्न करती जीवनभर
करुणा से पूरी है वो ,हर राग बैराग समझाती है 
कही महिमामंडित है स्वर्ण सी 
,तो कही शर्म से छिप जाती है 
पौरुष भरती भुजाओं में कभी मणिकर्णिका जैसा ,
फिर भी क्यों आभासी बिंब के पीछे परछाई सी खड़ी होती है 
आधुनिक सा कहते हो खुद को,फिर भी स्त्री अपमानित होती है 

कही नही है पावन जीवन घर घर सीता रोती है 

कभी कल्पना सा लक्ष्य लेकर वो अंतरिक्ष को छू जाती है 
कभी पछाड़ती कोई अरुणिमा सर्वोच्च शिखरों को 
तो कही कोई इंदिरा ,राष्ट्र निर्माता शासक सी नजर आती है 
कभी सिकंदर से लक्ष्य लिए वो ,महायुद्ध लड़ जाती है 
कभी प्रतिष्ठा,सम्मान बचाती पद्मिनी , जौहर करती दिख जाती है।
रूप ,रंग, काया, मर्यादा ,शौर्य,
ऐसी उत्तमता अनगिनत उसमे...
भले पवित्र वो शती जैसी
या कोई रत्नावली ममता से सिंची पोषित होती है 
चौकसी करते कितने ही राम भले ही ...
चीर हरण होती द्रोपदी ,सीता अपहरणित होती है 
कही नही है पावन जीवन घर घर सीता रोती है 



Comments

Post a Comment

Popular Posts