मां और मैं

एक रोज, सवेरे जब मैंने
जिंदगी की आह भरी
बेरंग, धुंधली निराशा में
उसने जीवन की चाह भरी
मैं जब सकपका रहा, मैं सुबक रहा 
उसके भी नयनों से नीर झरे

मन शांत हुआ नई थाह भरी 
जब उसने मेरी बांह भरी
मैं मुक्त हुआ सब विरहो से 
जब मुझमें उसने, धम्म,प्रेम और धीर धरे
मैं भय अतीत आज़ाद हुआ 
जब दुलार प्रेम से उसने सारे पीर हरे 

जब राह किसी पगडंडी पर 
मेरे कच्चे पांव पड़े ..
धूप जलाती कैसे तन को ?? 
जब मैं खड़ा वृक्ष की छांव तले !
बड़े समंदर पार हुआ हूं 
जब भी उसके साथ रहा हूं 
वो चला रही मझधार में नैया
मैं भी उसके साथ बहा हूं 

मेरी सब इच्छाओं को 
वो सरल सहज स्वीकार रही 
मेरे तन पर रख कनक सुनहरे
खुद पुरानी साड़ी से जीवन गुजार रही 
क्यों नज़र बचाऊं मैं अब अंधेरे से 
जब मां जीवन रेखा तराश रही 








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